कर्म में कठिनाइयां

 

     आज सवेरे में पांच मिनट काम करके ही थक गया । काम था बस फर्नीचर पर पॉलिश करना !

 

सभी शारीरिक कामों में कई बार शुरू में थकान आती है । धीरे-धीरे शरीर को उसका अभ्यास हो जाता है और वह मजबूत हो जाता है । फिर भी, यदि तुम सचमुच थकान का अनुभव करते हो तो तुम्हें काम बन्द करके आराम करना चाहिये ।

११ फरवरी, १९३३

 

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     समर्पण के साथ काम कहीं ज्यादा आसानी से और खुशी से किया जा सकता है । लेकिन किसी से वह जितना कर सकता है उससे ज्यादा करने के लिए न कहना चाहिये ।

२७ फरवरी, १९३५

 

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     थके बिना काम करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि चाहे जो भी काम हो उसे भगवान् के अर्पण कर दो और तुम्हें जिस सहारे की जरूरत है उसे भगवान् में ही पाओ क्योंकि भगवान् की शक्ति अपार है और 'उन्हें' जो कुछ भी सचाई के साथ अर्पित किया जाता है 'वे' हमेशा उसका उत्तर देते हैं ।

 

     हां, तो जब तुम यह अनुभव करो कि तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे द्वारा भगवान् की शक्ति ने काम किया है तो अपनी सचाई से तुम जान जाओगे कि श्रेय 'उनको ' है तुम्हें नहीं । अत: गर्व करने के लिए कोई कारण नहीं रह जाता ।

 

     आशीर्वाद ।

 

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     काम के लिए चिन्ता न करो; जितनी स्थिरता और शान्ति से काम

 

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करोगे वह उतना ही ज्यादा प्रभावकारी होगा ।

२९ जुलाई, १९३५

 

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      कभी- कभी मुझे लगता है कि मेरे स्वभाव की कठोरता आपको मेरे अन्दर भली- भांति काम नहीं करने देती ।

 

लेकिन काम के द्वारा स्वभाव कम कठोर, नमनीय और लोचदार हो जाता है ।

 

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     मुझे तुम्हारे ऊपर पूरा विश्वास है और जानती हूं कि तुम अपनी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभाने योग्य हो । रही बात कठिनाइयों और कमियों की तो ये सभी के लिए हैं और यहां उन्हें विजित करना है । कर्म की साधना का यही अर्थ है । साहस के साथ अपना काम किये जाओ ,  भगवान् पर पूरी श्रद्धा रखो और केवल 'उन्हीं' की सहायता और कृपा का भरोसा रखो ।

६ जनवरी, १९४२

 

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     मैं तुम्हारे उत्पीड़ित अनुभव करने का कोई कारण नहीं देखती । "क'' वाटिका जैसी संस्था को चलाना कोई आसान काम नहीं है और इस काम को सीखने से पहले बहुत-से कटु अनुभवों की जरूरत हो सकती है । मैं केवल यही चाहती हूं कि तुम सीखने के लिए सद्‌भावना बनाये रखो और अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए सत्संकल्प बनाये रखो । बाकी के लिए, यानी परिणाम के लिए हमें धीरज धरना होगा ।

 

     अपने प्रेम और आशीर्वाद सहित ।

१ मई, १९४४

 

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     यहां जो भी काम दिया जाता है उसके लिए पूरी सामर्थ्य और भागवत

 

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कृपा भी साथ-ही-साथ दी जाती है ताकि काम उस तरह किया जा सके जैसे किया जाना चाहिये । अगर तुम सामर्थ्य और भागवत कृपा का अनुभव नहीं करते तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारे मनोभाव में कुछ भूल है । श्रद्धा की कमी है या तुम फिर से पुराने ढर्रों और पुरानी मान्यताओं में जा गिरे हो और इस तरह सारी ग्रहणशीलता खो बैठे हो ।

अक्तूबर, १९५२

 

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     हमारे काम की सिद्धि में जो प्रतिरोध आता है वह उसके महत्त्व के अनुपात में होता है ।

१० अक्तूबर, १९५४

 

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     काम के लिए वर्तमान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है । भूतकाल को रास्ते में न आना चाहिये और भविष्य को तुम्हें खींच न ले जाना चाहिये ।

२१ दिसम्बर, १९५४

 

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     अगर तुम अगली चीज के बारे में सोचते रहो तो तुम्हारा काम कभी अच्छा नहीं हो सकता । काम के लिए वर्तमान सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । भूत तुम्हें पीछे न घसीट सके और भविष्य आगे खींच न सके । तुम्हें वर्तमान पर पूरी तरह एकाग्र होना चाहिये, उस काम पर जो तुम कर रहे हो । तुम जो कर रहे हो उस पर तुम्हें इतना अधिक एकाग्र होना चाहिये मानों सारे जगत् का निस्तार केवल तुम्हारे काम पर निर्भर है ।

 

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     जब तक तुम कड़ी मेहनत न करो, तुम शक्ति नहीं पाते क्योंकि उस हालत में तुम्हें उसकी जरूरत नहीं होती और तुम उसके अधिकारी नहीं होते । तुम्हें शक्ति तभी मिलती है जब तुम उसका उपयोग करते हो ।

१३ अगस्त, १९५५

 

 

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तुमने जो काम हाथ में लिया है उसमें सच्चे रहो और भागवत कृपा हमेशा तुम्हारी सहायता के लिए मौजूद होगी ।

१४ अप्रैल, १९५९

 

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       अपने काम पर एकाग्र होओ--वही तुम्हें बल देता है ।

       आशीर्वाद ।

१० सितम्बर, १९६१

 

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      सरल और शान्त हृदय और स्थिर मन के साथ अपना काम जारी रखो । अभीप्सा आवश्यकता के अनुसार धीरे-धीरे आयेगी ।

२१ अप्रैल, १९६५

 

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     मुझे काफी समय से लग रहा कि अपने क्रिया-कलाप सीमित कर देने चाहिये और अपने-आपको निश्चल कार्य में लगाना जिसमें बहुत दौड़- भाग न पड़े ।

 

      मैं एक तरह के आन्तरिक संकट के दौर से गुजर रहा हूं । मेरा जीवन लक्ष्यहीन होता जा रहा । बार-बार आने वाला एक स्वप्न मुझे मेरी आन्तरिक अस्थिरता के बारे में चेतावनी दे रहा है । मेरी तात्कालिक आवश्यकता यह कि आन्तरिक सन्तुलन और स्थिरता प्राप्त करूं  । अंधकार घोर तमस् घटने चाहियें ।

 

      अगर माताजी स्वीकृति दें तो मैं अपने विभाग के काम से छुटकारा पाना चाहूंगा । फिर भी मैं करूंगा वही जिसके लिए 'माताजी' आदेश दें ।  कृपया मार्ग दिखलाइये ।

 

अगर तुम विभाग को छोड़ दोगे तो काम तबाह हो जायेगा । जैसे ही मुझे कुछ समय मिलेगा मैं तुम्हें सवेरे के समय बुलाऊंगी और तब हम इस विषय पर बातचीत करेंगे ।

 

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     मैं जितना अधिक बढ़ती हूं उतना ही जानती जाती हूं कि कार्य के द्वारा ही श्रीअरविन्द का पूर्णयोग अच्छे-से-अच्छी तरह किया जाता है ।

 

      प्रेम और आशीर्वाद ।

अक्तूबर, १९६६

 

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      माताजी,

 

              मेरा मन  बहुत परेशान है । पता नहीं मैं कहां हूं । हमने जो काम हाथ में लिया है वह बहुत बड़ा है । हम बहुत- सी चीजों के लिए वचनबद्ध हैं । मुझे क्या करना चाहिये यह न तो अन्दर से स्पष्ट न बाहर से । हर रोज निर्णय बदलते हैं,  नये प्रश्न उठते  हैं, अहंकार के आगे ऐसी स्थितियां आती हैं जिन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता । मैं माताजी से प्रार्थना करता हूं कि मुझे  विभाग के काम से तब तक के लिए मुक्त कर दिया जाये जब तक मुझे-कोई  स्पष्ट पथ-प्रदर्शन न मिले या माताजी के निश्चित आदेश न मिले कि मुझे क्या करना चाहिये ।

 

        यह एक व्यक्तिगत संकट है । मेरा लोगों से झगड़ा या शिकायत नहीं है | मैं अपना मुंह बन्द रखना चाहता हूं और दिन की  प्रतीक्षा करना चाहता हूं जब मैं  अपने सामने प्रकट होने वाले प्रकाश के सन्देश को पढ़ सकूं ।

 

        मैं माताजी  के प्रकाश के लिए प्रार्थना करता हूं ।

 

कितना अच्छा हो यदि तुम प्रभावित न होओ और अपना काम जारी रखो । अभी इतना अधिक काम करना है और सबकी सहायता की बहुत सख्त जरूरत है ।

 

      अगर तुम मुझसे मिलना चाहते हो तो मैं तुमसे मिलकर खुश होऊंगी लेकिन यह याद रखो कि मैं कभी अकेली नहीं होती और बोलना मुश्किल है ।

 

       बहरहाल, विश्वास रखो कि मेरा प्रेम और आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

७ अगस्त, १९६९

 

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         माताजी,

 

                मेरे  सामने एक वैयक्तिक समस्या है और मैं माताजी के पथ-प्रदर्शन के लिए प्रार्थना करता हूं ।

 

                अभी तक मुझे किसी आन्तरिक पक्ष-प्रदर्शन का अनुभव नहीं होता । मेरे दिन भली- भांति नहीं बीतते । मैं विभाग के काम में लगा तो हूं पर मुझे लगता कि वहां मेरी पूछ नहीं है या मेरे ऊपर विश्वास नहीं किया जाता । लकिन मैं किसी साधारण विचार या भाव का पक्ष-प्रदर्शन नहीं चाहता । कभी- कभी एकान्तवास की बहुत इच्छा होती है । मैं प्रार्थना करता हूं कि मुझे जरा पक्की अनु हो कि मैं कर रहा हूं जो मेरे 'स्वामी' मुझसे करवाना चाहते हैं । मेरी निजी पसन्द- नापसन्द और मेरा अहं कर्म या शब्द की को कलंकित न करने पायें ।

 

                 ''माताजी''  ही मेरा मन्त्र  हैं और मैं 'उन्हीं' की शरण में हूं ।

 

न सिर्फ तुम्हारी जरूरत है बल्कि तुम काम के लिए अनिवार्य हो । तुम्हारे बिना वह ठीक ढंग से न होगा । इसलिए मैं तुमसे धीरज रखने के लिए कहती हूं । मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को महत्त्व न दो ।

 

               प्रेम और आशीर्वाद ।

३ मई, १९७०

 

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     काम हाथ में ले लो और श्रद्धा रखो; आवश्यकता के अनुपात में शक्ति आयेगी । तुम्हारी ग्रहणशीलता तुम्हारी श्रद्धा और तुम्हारे विश्वास पर निर्भर है ।

 

      प्रेम और आशीर्वाद ।

२४ दिसम्बर, १९७१

 

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